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फ़िल्म को चाहिए था चेहरा, पार्टी ने लिख दी किस्मत—देवानंद और ज़ीनत की कहानी
बॉलीवुड . जनगाथा विशेष।
1970 का दशक… देवानंद अपनी नई फ़िल्म ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ को लेकर बेहद संजीदा थे। कहानी समाज की उस दरार को दिखाती थी जहां युवा पीढ़ी पश्चिमी नशे की लत, हिप्पी कल्चर और आधुनिक जीवनशैली के प्रभाव में बह रही थी। फ़िल्म का सबसे अहम किरदार था—‘जसबीर उर्फ़ जंजीरा’, देवानंद की बहन, जिसकी वजह से पूरी कहानी अपना मोड़ लेती है।
लेकिन मुश्किल यह थी कि बॉलीवुड की कोई भी प्रसिद्ध हीरोइन इस रोल के लिए तैयार नहीं हो रही थी। हर कोई बस एक ही इच्छा रखता था—देवानंद के साथ रोमांटिक रोल करना। भले ही जंजीरा का किरदार कहीं अधिक दमदार, चुनौतीपूर्ण और कहानी की धुरी था, फिर भी हीरोइनों को स्क्रीन पर उनकी बहन बनने से परहेज़ था।
देवानंद की तलाश जारी रही। वे ऐसी लड़की ढूँढ़ना चाहते थे जो दिखने में भारतीय हो लेकिन जिसकी सोच, चाल-ढाल और व्यक्तित्व में पश्चिमी अंदाज़ साफ़ दिखे। किरदार को छोटे कपड़े पहनने, सिगरेट पीने और मॉडर्न लाइफ़स्टाइल अपनाने में कोई दिक्कत न हो—यह जंजीरा की ज़रूरी पहचान थी।
और फिर आई वह रात…
देवानंद के दोस्त अमरजीत के घर पर एक पार्टी रखी गई। उन्हीं दिनों मिस एशिया पैसेफ़िक का ताज जीतकर लौटीं ज़ीनत अमान भी उसी पार्टी में आमंत्रित थीं। जब ज़ीनत अपने मॉडर्न, आत्मविश्वास से भरे अंदाज़ में पार्टी में पहुँचीं, तो देवानंद की निगाहें ठिठक गईं।
वह वही चेहरा था जिसकी तलाश उन्हें लंबे समय से थी।
वह वही व्यक्तित्व था जो ‘जंजीरा’ की आत्मा को जीवंत कर सकता था।
देवानंद ने वहीं पार्टी में समझ लिया—इस भूमिका को कोई निभा सकता है, तो वह ज़ीनत अमान ही हैं।
कहानी बदल गई, तक़दीर लिख दी गई
ज़ीनत अमान को फ़िल्म में लिया गया… और बाकी इतिहास बन गया।
‘दम मारो दम’ ने उन्हें रातों-रात सुपरस्टार बना दिया।
जंजीरा का किरदार भारतीय सिनेमा में एक ऐसा मील का पत्थर बन गया जिसने बॉलीवुड की हीरोइनों की छवि को नई दिशा दी।
देवानंद की वह एक मुलाक़ात, एक निर्णय और एक पार्टी—आज भी हिंदी सिनेमा की सबसे दिलचस्प कहानियों में से एक मानी जाती है।
और सच यही है—
फ़िल्म को चाहिए था चेहरा, लेकिन किस्मत ने वह चेहरा एक पार्टी में ही सामने ला दिया।

