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ED पर सुप्रीम फटकार: लोकतंत्र की लड़ाई अदालत में नहीं, जनता के बीच होनी चाहिए!

विशेष रिपोर्ट: नई दिल्ली:
देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी मानी जाने वाली प्रवर्तन निदेशालय (ED) एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय के निशाने पर आ गई है। राजनीतिक मामलों में लगातार दखल देने और आर्थिक अपराधों की आड़ में विपक्षी नेताओं को निशाना बनाने के आरोपों पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त लहजे में टिप्पणी की है।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई ने सुनवाई के दौरान कहा, "राजनीतिक लड़ाई अदालतों या जांच एजेंसियों के माध्यम से नहीं, बल्कि जनता के बीच लड़ी जानी चाहिए।"
यह टिप्पणी ऐसे समय आई है जब ED की कार्यशैली को लेकर देशभर में बहस तेज है। विपक्षी नेताओं का कहना है कि ED का इस्तेमाल अब राजनीतिक विरोधियों को दबाने के लिए एक औजार के तौर पर किया जा रहा है। अदालतों ने भी अब इस एजेंसी की भूमिका पर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं।
पिछले कुछ वर्षों में ED की सक्रियता में जिस तरह से उछाल आया है, उससे इसकी निष्पक्षता पर संदेह गहराता जा रहा है। चुनाव से पहले, विधानसभा सत्रों के दौरान या फिर सरकार के विरोध में आवाज़ उठाने वाले नेताओं पर अचानक कार्रवाई होना अब आम बात बन गई है।
सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी न केवल ED की भूमिका पर सवाल उठाती है, बल्कि इस ओर भी इशारा करती है कि अगर जांच एजेंसियां राजनीतिक लड़ाई का हिस्सा बनने लगेंगी, तो इससे लोकतंत्र की नींव हिल सकती है।
कुछ उच्च न्यायालयों ने भी इस एजेंसी की 'चयनात्मक सक्रियता' पर चिंता जताई है। अदालतों का कहना है कि ED कई बार ऐसे मामलों में भी प्रवेश कर जाती है जो उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं। इससे न सिर्फ आरोपियों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, बल्कि न्यायिक प्रक्रिया पर भी असर पड़ता है।
कानून विशेषज्ञों का मानना है कि न्यायपालिका की बार-बार दी जा रही चेतावनियों को नजरअंदाज करना लोकतंत्र और संविधान के लिए खतरनाक संकेत हैं। अगर जांच एजेंसियों को समय रहते संविधान की सीमाएं नहीं याद दिलाई गईं, तो आने वाले वक्त में ये संस्थाएं सत्ता का हथियार बन सकती हैं।
अब देखना यह है कि सुप्रीम कोर्ट की इस तीखी टिप्पणी के बाद ED अपने कामकाज में कोई संतुलन लाती है या नहीं। लेकिन एक बात तो तय है—न्यायपालिका ने अब संकेत साफ दे दिए हैं कि लोकतंत्र के साथ कोई खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।