होशियारपुर, जनगाथा टाइम्स: (रुपिंदर)
संत हमेशा परमार्थ को, भक्ति को प्राथमिकता देते हैं। उनके जीवन में सेवा सिमरन और सत्संग केवल शब्द नहीं, कर्म रूप में शामिल होते हैं। उक्त उद्गार निरंकारी सतगुरु माता सुदीक्षा जी महाराज ने आनलाईन व्रचुअल समागम के दौरान श्रद्धालुओं को आर्शीवाद प्रदान करते हुए प्रकट किए। उन्होंने आगे फरमाया कि सदियों से संतों, पीरों , वलियों ने इस निरंकार का आधार लेने की ही शिक्षा दी हैं। इसी ज्ञान को जीवन में ढाल कर हम अपना भी कल्याण कर सकते हैं, और दूसरों के लिए भी वरदान बन सकते हैं। दातार सभी को ऐसा ही जीवन जीने की शक्ति और भाव प्रदान करे।
उन्होंने सत्संग की महत्ता के बारे में बताते हुए कहा कि सत्संग के लिए कभी भी मन में आलस नहीं आना चाहिए। संसार में देखा जाता हैं कि एक प्रतिस्पर्धा हैं, एक दौड़ हैंदूसरों से आगे बढ़ने की, दूसरे को नीचा दिखाने की। सोशल मीडिया पर भी लोग अपने मित्रों की संख्या का दिखावा करते हैं पर संत ऐसा नहीं करते। वो दूसरों से मुकाबला न करके एक सहयोग और भाईचारे का भाव रखते हैं। खेलों में भी प्रतिस्पर्धा होती हैं, पर वो सकारात्मक होती है। उसमें खेलों का भाव प्राथमिक होता हैं, न कि जीतना या हारना। उन्होंने आगे फरमाया कि यदि हम मानव के रूप में जन्में हैं, तो हमें सोचना होगा कि हम कैसा योगदान दे रहे हैं, एक इंसान वाला या फिर एक हैवान वाला। जैसे कि एक शायर ने कहा एक जैसी दिखती थी वो माचिस की तीलियां, किसी ने दिये जलाए, तो किसी ने घर।इंसान ईश्वर की सर्वोत्तम रचना हैं, तो किरदार भी वैसा ही होना चाहिए। ब्रह्मज्ञान के बाद तो कोई कारण नहीं रह जाता अहंकार करने का, भेदभाव रखने का या फिर नफरत करने का। लोग छोटी सी बात पर सालों की पहचान भूल कर दुश्मनी कर लेते हैं। हमें छोटी छोटी बातों को नजरंदाज करना चाहिए। रिश्ते माया से ज्यादा अहम होते हैं।