रेल मंत्रालय को लेकर हमारे देश में काफी राजनीति होती रही है और इस मंत्रालय का आकर्षण इसका अलग बजट भी है लेकिन नीति आयोग की सिफारिश को अगर मान लिया गया तो 92 साल से चली आ रही परंपरा खत्म हो जाएगी। रेलवे की सेहत सुधारने के लिए लगातार कोशिश हो रही है। रेलवे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है और इससे कृषि और उद्योग सीधे तौर पर जुड़े हैं। जब भी नई सरकार बनती है तो इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि कौन इसके मंत्री बन रहे हैं क्योंकि मुख्य बजट की तरह रेल बजट अलग होता है जिसमें खास अपने क्षेत्र को महत्ता देने की गुंजाइश भी रहती है।
आखिर क्यों रेल बजट का मुख्य बजट में विलय किया जाए इस पर तर्क दिया गया है कि नई ट्रेनें जरूरत के मुताबिक बीच में ही चलाई जा सकती हैं और किराया तय करने के लिए संसद पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं होती है। अब तक रेल बजट के अवसर का इस्तेमाल किराए में वृद्धि या कमी के लिए किया जाता रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि रेल किराए में वृद्धि के लिए संसद की मंजूरी आवश्यक नहीं है, इसलिए रेल बजट अलग से पेश करना जरूरी नहीं है। फिलहाल रेलवे बजट के दस प्रमुख भाग होते हैं जिसमें से मात्र दो को ही संसद की मंजूरी की आवश्यकता होती है ये दो भाग पिछले वित्त वर्ष का वित्तीय प्रदर्शन और बजटीय वर्ष के लिए प्रस्तावित राजस्व और व्यय है। इस तरह इन दोनों को आम बजट में शामिल किया जा सकता है। जैसा कि अन्य मंत्रालयों के संबंध में होता है। रेल बजट खत्म करने के पीछे यह भी तर्क है कि नौकरशाही और राजनीतिक प्रक्रिया में कमी आएगी जिससे रेलवे को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी क्योंकि वोट बैंक के लिए लोकलुभावन घोषणाएं समाप्त हो जाएंगी। आयोग ने अपनी रिपोर्ट पीएमओ को सौंप दी है और पीएमओ ने इसे रेलवे बोर्ड को भेज दिया है। रेलवे बोर्ड इस पर सहमति जाहिर कर देता है तो करीब सौ साल से चली आ रही इस परंपरा का अंत हो जाएगा।