पंजाब इन दिनों गलत वजहों से सुर्खियों में है। कभी हरित क्रांति का अगुवा रहा यह सूबा आज ड्रग्स की समस्या के कारण चर्चा में है। संभव है कि ड्रग्स की लत के शिकार नौजवानों की संख्या को लेकर अलग-अलग राय हो, मगर इस बात से सभी राजी होंगे कि यह तादाद बहुत बड़ी है और हालात अब संकट के बिंदु तक पहुंच गए हैं। इसीलिए मसला ड्रग्स की लत का दायरा नहीं, बल्कि यह है कि आखिर क्यों पंजाब में नौजवान इसकी तरफ आकर्षित हो रहे हैं? इस झुकाव को लेकर कई तरह की सांस्कृतिक व सामाजिक दलीलें दी जाती रही हैं, मगर हकीकत यह है कि वहां की एक के बाद दूसरी सरकार ने इस समस्या को नजरअंदाज किया, बल्कि बहुत मुमकिन है कि सीधे या प्रकारांतर से इसको बढ़ाया ही। फिर भी, यह सिर्फ शासन की विफलता का मसला नहीं है, बल्कि यह ग्रामीण इलाकों की एक बड़ी समस्या का लक्षण भी है। और वह असली समस्या है बेरोजगारी, पंजाब के नौजवानों के लिए आजीविका के विकल्पों का अभाव।
हाल के वर्षों में विदेश जाने की रफ्तार भी धीमी पड़ी है और राज्य में रोजगार के वैकल्पिक अवसरों के अभाव में बेरोजगारी की समस्या बद से बदतर होती गई है। आज ऐसे किस्सों व अध्ययनों की भरमार है, जो पंजाब में कृषि क्षेत्र के संकट और नौजवानों में उससे जुड़े रोजगार की समस्या की बात करते हैं। किसानी से पलायन की प्रक्रिया ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है, जिसमें कृषक समुदाय लगातार खेती का काम छोड़ता जा रहा है, और अब तक ऐसे बहुत थोड़े से कृषक मजदूर अपने लिए दिहाड़ी का काम जुटा पाए हैं। ज्यादातर कृषक जातियां व समूह अब भी दैनिक मजदूरी के अनिच्छुक हैं, और गैर-कृषि क्षेत्र में उन्हें कोई काम मिल नहीं पा रहा है। लेकिन यह अकेले पंजाब की समस्या नहीं है।
पंजाब में भले ही इसका एक विकृत नतीजा देखने को मिल रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि पूरे देश के कृषक जाति-वर्ग के लिए अपने नौजवानों को कृषि-कर्म से जोड़े रखना मुश्किल हो रहा है। बदल रही आर्थिक स्थिति और रोजगार के अवसरों की कमी अराजकता के हालात की ओर बढ़ रही है। सरकारी नौकरियों में आरक्षण के अभियान इसी के उदाहरण हैं। हरियाणा में जाटों, गुजरात में पटेलों और महाराष्ट्र में मराठों की सरकारी नौकरियों में कोटा की मांग दरअसल कृषि क्षेत्र में घटते मुनाफे और रोजगार के सिमटते अवसरों को ही प्रतिबिंबित करती हैं। इनमें से ज्यादातर राज्य गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार के मौके पैदा करने में नाकाम हैं, बावजूद इसके कि इनकी आर्थिक विकास दर में बढ़ोतरी जारी है।
यह एक बहुत बड़ी समस्या है, और अर्थव्यवस्था पिछले दो दशकों से इसका सामना कर रही है। सच्चाई यह है कि हमारी अर्थव्यवस्था साल 2004-05 से 2011-12 के बीच हर वर्ष सिर्फ 20 लाख नौकरियां पैदा कर सकी, जबकि यह अवधि उच्च विकास दर वाली रही है। जाहिर है, श्रम बल में शामिल हो रही आबादी के आगे यह संख्या काफी कम है। तब तो और, जब इसी अवधि में साढ़े तीन करोड़ की श्रम शक्ति खेती-किसानी छोड़कर श्रम बाजार में दाखिल हुई हो। रोजगार के अवसरों का सृजन भविष्य में भी अर्थव्यवस्था के आगे एक बड़ी चुनौती बना रहेगा। नेशनल स्किल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के एक आकलन के मुताबिक, अगले सात साल में लगभग ढाई करोड़ लोग खेती छोड़कर नए रोजगार की होड़ में शामिल होंगे। सरकार को इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए हर वर्ष कम से कम 20 लाख नौकरियां पैदा करनी होंगी। लेकिन इसके उलट स्थिति यह है कि पिछले दो साल में हमारी अर्थव्यवस्था महज सात लाख अवसर ही पैदा कर सकी है, और उनमें से भी आधे मौके अकेले वस्त्र उद्योग के क्षेत्र के हैं।
पंजाब में ड्रग्स की समस्या कानून-व्यवस्था का मसला नहीं है। मौजूदा सरकार की नाकामी ने यकीनन इस समस्या को और गंभीर बनाया है, पर यह मसला आर्थिक है। यह मुद्दा एक ऐसी रणनीति पर गंभीर बहस की जरूरत बता रहा है, जो न सिर्फ खेती छोड़ने वाले नौजवानों को लाभकारी रोजगार मुहैया कराने में समर्थ हो, बल्कि श्रम-बल का हिस्सा बनने वाले नए युवा-युवतियों की अपेक्षाओं को भी पूरा करती हो।
ड्रग्स की लत का खतरा तो हमारी आर्थिक नीति के गंभीर रोग का लक्षण मात्र है, जो रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करने में नाकाम रही है। पंजाब जैसी बेचैनी दूसरे सूबों में भी दिखने लगी है और यही वक्त है कि केंद्र सरकार बेरोजगारी की समस्या से निपटने को लेकर एक ठोस रणनीति बनाए। लेकिन अफसोस, समस्या के हल की बात तो दूर, इसकी गंभीरता ही नहीं समझी जा रही है।