नक्काल – एक परम्परा, एक इतिहास- डॉ प्रिया सूफ़ी

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    पंजाब के कलात्मक इतिहास में लोक नाट्य परम्परा का अपना अलग मुकाम है। राजाओं, रजवाड़ों के आश्रय से परवान चढ़ी यह लोक कलाएँ पंजाब के ग्रामीण परिवेश से गहराई से जुड़ी हैं। जिनमें भांड, नक्काल, ढाढ़ी, नट व मरासी इत्यादि का महत्वपूर्ण स्थान है।
    मनोरंजन के आधुनिक साधन आने से बहुत पहले भांड और नक्काल अपनी हास्य-व्यंग्यपूर्ण शैली में नकलें पेश कर खुशी के पलों को और भी अधिक मनोरंजक बना देने में खासे मशहूर थे। ‘नाट्य-कला’ के समान ही ‘नकल कला’ विविध कलाओं का संगम है। नक्काल को एक ही समय में अच्छा गायक, संगीतज्ञ, नर्तक, अदाकार और नाटककार होना पड़ता है। और यह कोई साधारण बात नहीं है।
    परिभाषा तथा स्वरूप की दृष्टि से देखा जाए तो नकल स्वांग अथवा सांग, पंजाबी में कहें तो ‘रीस’ का ही दूसरा रूप है। कोश के अनुसार नकल का अर्थ है अनुकरण, अथवा किसी वस्तु का अनुकरण कर लगभग उस जैसा व्यवहार करना ‘नकल’ है। पंजाबी संस्कृति में नकल और सांग (स्वांग) मनोरंजन की सर्वाधिक प्राचीन शैली है। एक नक्काल के कथनानुसार- “नकल उस चीज़ को कहते हैं, जो हो कर मिट जाए, जो चीज़ खत्म हो जाए, उसको नकल कहते हैं। वास्तविक तो केवल परमात्मा की, वाहेगुरु की, अकाल पुरुष की ज़ात है, जिसने सदा कायम रहना है। हम अकेले नक्काल नहीं, यह सारा संसार ही नकल है … ।”- खुशी राम घनौर । एक अन्य परिभाषा के अनुसार-“ नक्कालों द्वारा खेले जाने वाले हास्य रसी नाटक को नकल कहते हैं।” पंजाबी की लोक धारा पुस्तक के अनुसार-“नकल में स्वांग, सम्वाद, नृत्य और संकेतों के माध्यम से नाटक रचा जाता है।”
    हमारे जीवन में नकल का महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षा के प्राथमिक दौर में बालक अपने परिवार के बजुर्गों और अध्यापकों आदि की नकल करता हुआ ही जीवन के जरूरी सबक सीखता है। नक्कालों की ही कस्बई जातियाँ हैं – भांड और मरासी। हालांकि मरासी जाति केवल नकलें तक सीमित नहीं है बल्कि यह गायन और वादन इत्यादि अन्य विधाओं में निपुणता हासिल कर और विविध कलाओं से जुड़े हैं। जबकि भांड लोगों का स्वांग रच कर, चुटकुले सुनाकर, मखौल उड़ाने वाली बातें कर मनोरंजन करते हैं। यह केवल दो लोग होते हैं, जिनमें से एक कुछ ज्ञान की, कुछ समझदारी की, कुछ चतुरतापूर्ण बातें करता है। जबकि दूसरा जानबूझ कर उन्हीं बातों को तोड़-मरोड़ कर हास्य उत्पन्न करता है। जिससे पहले वाला हाथ में पकड़े चमड़े के टुकड़े से उसे मारता है। दूसरा चमड़े की मार को हाथ पर तो कभी कूल्हे पर सहता मजाकिया बातें बोलते हुए हँसी उत्पन्न करता है।
    भांड और नक्कालों में यही अंतर है कि भांड दो जन होते हैं और उनकी भाषा निम्न स्तरीय तथा हास्य दोयम दर्जे का होता है। जबकि नक्काल समयानुसार आदर्श भाषा, स्तरीय बातें तथा शिष्ट हास्य उत्पन्न कर सभी से प्रशस्ति पाते हैं।
    नकल कला की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि काफी समृद्ध है। प्राचीन काल से ही यह कला पंजाब के राजाओं, रजवाड़ों एवं आम जनता के मनोरंजन का लोकप्रिय साधन रही है। कुछ विद्वान मरासी, डूम एवं भांड आदि को हिन्दू जाति का मानते हैं जो हिन्दू राजपूत राजाओं के दरबार में अपनी कला कौशल का प्रदर्शन कर आजीविका कमाते थे। मुसलमानों के पदार्पण के बाद यह सब मुसलमान हो गए। इसका सबसे बड़ा कारण हिन्दू समाज द्वारा इन्हें क्षुद्र अर्थात् निम्न जाति कह कर तिरस्कृत किया जाना रहा होगा। जबकि मुसलमानों में कोई क्षुद्र अथवा अनुसूचित जाति नहीं होती, तो समानता के अधिकार हेतु यह सब मुसलमान हो गए।
    कुछ अन्वेषकों का मत है कि यह लोग इस धरती (पंजाब) के मूल निवासी थे। आर्य लोगों के आविर्भाव तथा यहाँ निवसित होने के बाद उन्होंने इन लोगों की नाट्य कला को भी अधिकृत कर लिया। और इन्हें निम्न अथवा घटिया बोल कर तिरस्कृत किया जाने लगा। बाद में इन लोगों ने अपनी नकलों द्वारा उच्च जातियों को निंदित करना आरम्भ कर दिया। इस कला की प्राचीनता के विषय में डॉ हरचरण सिंह का मत है- “साहित्यिक एवं सामाजिक अन्वेषकों के अनुसार पंजाब की नाट्य परम्परा ईस्वीपूर्व काल से निरन्तर प्रवाहमान है।“ ऋषि पाणिनि ने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘अष्टाध्यायी’ में इस प्रकार के लोगों को स्थान दिया है। मुगलकाल में नकलें न केवल अत्याधिक प्रचलित थीं बल्कि लोगों के मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय साधन भी थीं। राजाओं, रजवाड़ों की खुशी हेतु अथवा त्योहार, मेले व विवाह आदि के मौके पर नकलों के अखाड़े लगा करते थे। मुल्ला कश्मीरी ने अपनी पुस्तक ‘रंगे-इश्क’ में नक्कालों की कला का ज़िक्र किया है। पंडित रत्न नाथ सरशार ने भी अपनी पुस्तक ‘अफ़साना ए आज़ादी’ में इस लोक कला के बारे में लिखा है। 17वीं शताब्दी में लिखे दामोदर के किस्से में हीर के विवाह के अवसर पर भांड, भगतिए अर्थात् नक्कालों का वर्णन मिलता है। वारिस शाह की हीर में भी नक्कालों का ज़िक्र है।
    सिक्ख इतिहास में भी नकलों के संबंध में कई हवाले मिलते हैं। ज्ञानी ज्ञान सिंह एवं रत्न सिंह भंगू ने लिखा है कि आनंदपुर साहिब में गुरू गोबिंद सिंह जी के दरबार में भी नक्कालों के एक टोले ने मसंदों की करतूतों के विषय पर बेहद प्रभावशाली नकल पेश की थी। जिसका गुरू साहब पर गहरा असर हुआ था और इसके बाद ही उन्होंने मसंदों को सबक सिखाने का हुक्म दिया था। फ़र्खूशियर के दिल्ली दरबार में भी नक्कालों ने सिक्खों की बहादुरी की नकल पेश की थी। इसके भी कई पुख़्ता सबूत मिलते हैं।
    इस विषय में प्रसिद्ध विद्वान डॉ अजीत सिंह औलख लिखते हैं- “ 1920 से 1947 तक का समय नकलों के इतिहास का सुनहरी समय कहा जा सकता है। इस समय के दौरान कई पेशेवर नक्काल अपनी टोलियाँ बना कर नकलें दिखाते रहे। हर विवाह के अवसर पर इन्हें बुलाना आवश्यक समझा जाने लगा।”1947 के विभाजन के वीभत्स समय का इस कला पर सबसे अधिक बुरा प्रभाव पड़ा। क्योंकि कुछेक को छोड़ कर इस कला से जुड़े लगभग सभी कलाकार मुसलमान धर्म से संबंधित थे। केवल मलेरकोटला रियासत को छोड़ कर बाकी पूरे पंजाब से अधिकतर मुसलमान पाकिस्तान चले गए। विभाजन के बाद मलेरकोटला की चार पांच नकल मंडलियों ने इस दम तोड़ती कला की जोत को जगाए रखा। मनोरंजन के क्षेत्र में आधुनिक साधनों के प्रचलन ने पारम्परिक कलाओं के क्षेत्र को लीलना आरम्भ कर दिया। इन कलाओं से जुड़े कलाकार रोज़ी रोटी की तलाश में दूसरे व्यवसायों की ओर मुड़ने पर मजबूर हो गए।                                                                                      आज भी पूरे पंजाब में केवल चार-पांच नकल मंडलियाँ सम्पूर्ण प्रतिकूल हालातों के बावजूद भी इस कला से न केवल जुड़ी हैं बल्कि पूरे मनोयोग से इसे बचाने व इसकी समृद्ध विरासत को संभालने का पुरजोर प्रयत्न   कर रही हैं।                                                                                                                                                                                     डॉ प्रिया सूफ़ी  

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